श्रीमती गौरा पंत की स्मृति में (स्रोत: विकिपीडिया)
श्रीमती गौरा पंत, जिन्हें शिवानी के नाम से जाना जाता है, का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को गुजरात के राजकोट में हुआ था। उनके पिता, श्री अश्विनी कुमार पांडे एक शिक्षक थे और उनकी माँ संस्कृत भाषा की विद्वान थीं, और लखनऊ महिला विद्यालय की पहली छात्रा थीं। गौरा पंत 20वीं सदी के हिन्दी कहानीकारों में सशक्त प्रतिनिधि कहानीकार थीं और उनकी कहानियों की कथावस्तु भारतीय महिलाओं पर केंद्रित होती थी। गौरा पंत जी का निधन 21 मार्च, 2003 को हुआ।
टैगोर जी के शांतिनिकेतन में गौरा पंत जी ने अपने जीवन के नौ वर्ष व्यतीत किए और 1943 में विश्वभारती विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। शांतिनिकेतन में उनके द्वारा बिताए गए दिनों की स्मृतियों को उनके संस्मरण “आमादेर शांतिनिकेतन” में पढ़ा जा सकता है। रवींद्रनाथ टैगोर अनेक बार गौरा पंत जी के अल्मोड़ा स्थित पैतृक निवास पर जा चुके हैं।
गौरा पंत ने अपनी पहली लघु हिन्दी कहानी एक बच्चों की पत्रिका में तब प्रकाशित की जब वह मात्र 12 साल की थीं। 1951 में उनकी महान कृति “धर्मयुग का स्मरणोत्सव” से उनको 'शिवानी' के नाम से जाना जाने लगा। चालीस से अधिक उपन्यासों,कालानुक्रमित इतिवृत्तियों, लघु-कथाओं और लेखों आदि के विपुल लेखन के साथ उन्होंने अपनी एक गहरी छाप छोड़ी है। कृष्णकाली, मायापुरी, चौदह फेरे, लाल हवेली, श्मशान चंपा, भारवी, रति विलाप, विषकन्या और अपराधिन जैसी लोकप्रिय पुस्तकों में उनकी प्रभावशाली लेखन-शैली स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उनके लेखन में बंगाली संस्कृति का स्वाद मिलता है जो कि काफी हद तक रवींद्रनाथ टैगोर से प्रेरित था। शिवानी अपने बचपन और जीवन के शुरुआती वर्षों के उस हिस्से से अपने काल्पनिक ब्रह्मांड का निर्माण किया जिसे वह सबसे ज्यादा प्यार करती थीं। बार-बार उन्होंने अपने उपन्यासों में पृष्ठभूमि के रूप में कुमाऊं और बंगाल के स्थानों का इस्तेमाल किया है। टेलीविज़न युग से पूर्व 1960 और 1970 के दशक के दौर में बड़े पैमाने पर पाठक शिवानी जी की रचनाओं के प्रशंसक थे। उनकी साहित्यिक कृतियों में शामिल उनकी सबसे प्रसिद्ध औपन्यासिक कृति 'कृष्णकली' को धर्मयुग एवं साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी हिन्दी पत्रिकाओं में क्रमिक रूप से प्रकाशित किया गया था जिससे उनको हिन्दी पत्रिकाओं के उपन्यासकार के रूप में नई पहचान मिली। अपने लेखन के माध्यम से, देश भर में हिन्दी भाषी भारतीयों का परिचय उन्होंने कुमाऊं की संस्कृति से करवाया। उनके उपन्यास 'करिये चीमा' पर फिल्म बनायी गयी और उनकी उपन्यास 'सुरंगमा', 'रतिविलाप', 'मेरा बेटा' और 'तीसरा बेटा' पर टेलीविजन धारावाहिकों का निर्माण किया गया। 2003 में उनकी मृत्यु पर, भारत सरकार ने हिन्दी साहित्य में उनके योगदान का चित्रण करते हुए लिखा, "... शिवानी की मृत्यु से हिन्दी साहित्य जगत ने एक लोकप्रिय और प्रख्यात उपन्यासकार खो दिया है और इस शून्य को भरना मुश्किल है"। वर्ष 2003 में अपने निधन तक वे अपनी रचनात्मकता को मूर्त रूप प्रदान करती रहीं। हिन्दी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए भारत सरकार ने 1982 में गौरा पंत (शिवानी) को पद्मश्री से सम्मानित किया।