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Meri Baat (e-magazine)

“क्या हुआ चाचा ? इतनी भीड़ है यहाँ ! कोई अपघात हो गया क्या ?”

उज्ज्वल के इस सवाल का जवाब देते हुए चाचा ने सर पर हाथ रखा और कहा, “कुछ नहीं बेटा, ये आज-कल के नौजवान, छोटी-छोटी बातों पर जान देने की कोशिश करते हैं। पहले तो इनको शर्म आती ही नहीं पर फिर ये सब नाटक करके माँ-बाप को और ज्यादा रुलाते हैं। इस लड़के ने तो मित्रों के कहने पर शराब का सेवन चालू किया फिर लोगों से पैसे उधार लिए....और अब बात गले तक आ गयी, तो चला आया मुँह उठाकर जान देने ! यही पास मे रोशनी कॉलोनी में रहता है। लोगो ने अभी तो बचा लिया पर पता नहीं इसका आगे क्या होगा ? इससे भला तो भगवान बेवारिस रखें। अब माँ-बाप पर ही बोझ बनकर जियेगा ! कपूत कहीं का !"

चाचा की बात सुनकर उज्ज्वल आक्रोश और पीड़ा से व्यथित हो गया। कुछ साल पहले वो भी छत के किनारे खड़ा होकर सुन्दर जिंदगी को अपने हाथ से कुचलने की सोच रहा था, पर खुद की जान लेने से आसान होता है, मुश्किलों का सामना करना। ये बात उसे आज तीव्रता से महसूस हो रही थी। इसी बात को जीकर आज उसने एक मुकाम पाया था। पर ये.......लड़का इसी बात को दिल और दिमाग मे जगाए उसने घर का दरवाजा खटखटया। दरवाजा खुला तो हमेशा की तरह माँ का गुस्सा सुनाई दिया। वो कामवाली बाई पर चिल्ला रही थी। "कितनी बार कहा है ,काँच के बर्तनों की थोड़ा सँभलकर साफ करे। तोड़ दिया ना एक कप और बर्तन ! जा अब जाकर उसे फेक दे!"

घर से बहार जाने वाले वो काँच के टुकड़े देखकर, उज्ज्वल के आंखों मे आसू उभर आये। आज की युवा पीढ़ी भी शायद इसी काँच के तरह होती है, जिसे बहुत प्यार और सावधानी से पकड़ने की ज़रूरत है। छोटी सी चूक इन सुंदर बर्तनों की जिंदगी एक पल मे किचन की शोभा से कूड़ेदान तक का सफर तय करती है। कचरा ? क्या गलती से बिखरा ये काँच बस कचरा है ? उसने अपने आँसू को रोककर जमीन पर बिखरे वो काँच के टुकड़ों को बटोरना शुरू किया। उन्हें लेकर वो अपने कमरे में चला गया और पूरी रात जागकर उसने उन्हीं टुकड़ों को कागज पर चिपकाकर, कुछ रंग भरकर एक सुंदर नक्काशी तैयार करी।

अगले दिन वो रोशनी कॉलोनी में दाखिल हुआ, और सूरज के घर का किवाड़ खटखटाया। सामने एक बीस पच्चीस साल के लड़के ने दरवाजा खोला, जिसके मुँह पर तेज तो था पर उलझन अनबन के बादलों ने उसे छुपा लिया था। ये वही लड़का था जिसने कल खुद को समाप्त करने का प्रयास किया था। उज्ज्वल ने बड़े प्यार से उससे मुलाकात की इच्छा जताई। मुर्झाए पेड़ को सही करने के लिए एक शायद प्यार से फेरा हाथ भी काफी होता है। सूरज को भी बस दिलासे की जरूरत थी। बड़ी आसानी से उसने अपना पुरा दुखड़ा उज्ज्वल को सुना दिया।

"बस एक नौकरी चाहिए थी। पर शायद मेरा आत्मविश्वास खुद को सिद्ध नहीं कर पाया। बहुत कोशिश करी पर हमेशा असफल रहा। ऐसे वक्त, हमें केवल किसी का भरोसा चाहिए, माँ बाप के दिलासे के दो शब्द भी आसमाँ छुने की ताकत देते हैं। पर शायद मुझसे ज्यादा उन्हें मेरी सफलता प्रिय थी। रोज के ताने सुनकर मैं खुद को हारता रहा। एक सहारा, शराब के रूप मे मिला। दिनभर शराब पीकर, मैं अपने फोन में खोया रहता। इसी शराब के लिए, दोस्तों से पैसे उधार लिए। पर जब इसी शराब ने मेरे मित्र का कत्ल किया तब समझ आया की मैं यथार्थ से भाग रहा था। शराब तो छोड़ दी मगर पैसे चुकाने की हिम्मत नहीं है। घर वालों को सच का पता चला तो कपूत कहकर मुझे ताने मारे। इससे अच्छा तो मरण है। इतना कहकर, वो सिसक-सिसक कर रोने लगा !

दरवाजे की आड़ मे खड़ी उसकी माँ भी अंदर आ गई और बेटे को गले से लगाकर रो पड़ी। "जन्म दिया है तुझे ! दो शब्द सुना दिए तो हमारे प्यार को पर संशय करने लगा तू ? गलती करी है तो डाँट भी सुना कर। ताने मारे ताकि तू और कोशिश करे। तुझे तोड़ने का कोई इरादा नहीं था हमारा ! माफ कर दे हमे !"

दीवार से लिपटकर खड़ा उज्ज्वल ये सब बस देख रहा था। न जाने क्यों पर आज उसे अद्भुत शांति का अहसास हो रहा था। आज की युवा पीढ़ी सोशल मेडिया में खोई है जिससे वो अगणित दुर्गुण लेती है। नौकरी पाने के लिए रोज मरती है। शायद गलत राहों पर जाती है। पर इससे बाहर निकलने के लिए उन्हें डाँट की नहीं बल्कि प्यार की जरुरत है। समझाने की जरूरत है। उनके चंचल मन को स्थिर करना शायद अनुभव ही संभव है। बस किसी भी परिस्थिती से बाहर निकला जा सकता है। ये उन्हें समझाने की जरूरत है। उज्ज्वल ने अपने साथ लाई काँच से बनी वो नक्काशी सूरज को दे दी और उसे ये भी बताया की इसी काँच की तरह एक दिन वो भी घर की शोभा बनेगा।

उसे अलविदा कहकर घर जाते वक्त वो बस यही सोच रहा था की यौवन में पर्दापण करते बच्चे या यौवन मे जीते बच्चे, सच मे काँच के बर्तन की तरह होते हैं बस टूटने पर उन्हें कचरा समझकर फेंकने की नहीं बल्कि संवारकर, संभालकर रखने की जरूरत है। एक दिन वही हमारी शोभा बनते हैं।

एक गुजरे वक्त की बात है। एक गाँव था, शोर से बहुत दूर। उस पहाड़ो की गोद में बसे काल से परे - आशियाने में एक में एक लड़का रहता था - विवेक। शाम होते, ही जब लालटेन और मोमबत्तियाँ अंधेरे का सहारा बनती थी, तब विवेक किताबों की दुनिया में अपने सपने देखा करता था। वो दुनिया जो मेरे आपके द्वारा साझी विरासत से बिल्कुल अलग थी। जहाँ कल्पनाएँ उड़ान भरा करती थीं, जहाँ नायक - नायिका लज्जित होकर, शीष टेका करते थे। यह वक्त था जब दादा-दादी की गौद में विवेक की सुकून मिला करता था। यह वक्त था विवेक खुद के विवेक को इतना विशाल नहीं मानता था कि अपने माता - पिता की विवेकता पर प्रश्नचिन्ह लगा सके।

गाँव के पार एक पहाड़ी थी - अटल, अडिग, आत्मविश्वास से भरी हुई। जब गाँव की नदी बहती हुई इस पहाड़ी के निकट से गुजरती, तो उसे कहानियाँ सुनाती - समुन्दर के लहरों की, सितारों की परछाईयों की, कहानियाँ जो अमर, कालजयी थीं। नदी उस पहाड़ी से कहती कि "चलो मेरे साथ ! हम साथ-साथ बहेंगे" मगर पहाड़ी मुस्कराती और कहती " मुझे जहाँ जाना है, वहाँ मैं, पहले से ही हूँ। मुझे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। इस कहानी का एक तीसरा साक्षी भी था - एक वटवृक्ष जिसकी "टहनियों में, पक्षियों का बसेरा था। सूर्य की पहली किरण, के साथ उड़ने वाले ये परिंदे, सांझ होते ही मासूम बच्चे की तरह अपने घर लौट आते थे। एक विशाल अजगर जो वटवृक्ष की जड़ो में वास करता था, वह नदी और पहाड़ी दोनों के पहलूओं को समझता था। परन्तु एक का पक्ष लेकर वह दूसरे की भावनाओं को आहत करने से डरता था।

वक्त बीतता चला गया। विवेक जो बड़ा हुआ, आगे की पढ़ाई के लिए, उसे शहर भेज दिया गया। यहाँ न तो मोमबत्ती की लौ थी, ना ही लालटेन के तेल की खुशबू। हाँ, उजाला तो बहुत था, लेकिन इसमें इसमें एक अपनेपन की कमी थी। वो रात को भूत पिशाचों की डरावनी कहानियाँ सुनना, छोटी बहन से हंसी-ठिठोली करना, माँ-बाप के साथ ख़ुशी के पल, यह सब, धीरे-धीरे अतीत के सुनहरे पलों में बदल गए।

अब विवेक लोगों की बातों में तर्क ढूँढा करता था। स्वपन में शंकाएँ और किसी भी घटना के विभिन्न पहलू। ये सब अब जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हैं। वो दिन बीत गये जब माँ की डांट का डर लह सुखा दिया करता था, जब छोटी बहन की तबीयत खराब होने पर उसने खाना खाने से मना कर दिया था। अब विवेक की दुनिया, उसके घर वालों तक सीमित नहीं थी। लेकिन इस भीड़ में कुछ तो नहीं था। अन्दर ही अन्दर विवेक को यह चीजकाट रही थी।

एक दिन खबर मिली कि दादी का देहान्त हो गया। दादाजी को, गुजरे एक वर्ष भी ना बीते थे। शायद पति परमेश्वर से जुदाई वो बरदाश्त न कर सकीं। दादाजी के वक्त तो विवेक बहाना बना कर नहीं गया था, दादी के निधन पर उसे आना ही पड़ा। शायद वो त्याग, वो बचपन की बची खुरी मासूमियत, उसे खींच कर ले आई थी।

सारा क्रिया-कर्म समाप्त होने के बाद, विवेक नदी किनारे जाकर बैठ गया। बचपन मे वो यहां आकर अक्सर बैठा करता था। आसमान में सितारों की बारात सजी थी। सामने पहाड़ी ने सवाल किया - शब्दों में नहीं, बस मौन भावना में "क्या तुम अब भी बहना चाहते हो ? लौट कर वापस तो यहीं आना पड़ा तुम्हें ?"

तभी एक हल्की हवा चली लालटेन की लौ टिमटिमाई। वातावरण एक जानी-पहचानी सौंधी सुगन्ध से भर गया। विवेक के अंदर की नदी फिर से बहना चाहती थी। वह जानती थी कि मृत्यु एक अंत नहीं, एक अनंत यात्रा की शुरुआत है। वह जानती थी कि जीवन में आगे बढ़ना एक त्याग है। यह त्याग जरूरी नहीं कि अपनी मासूमियत की कीमत चुकाकर हासिल की जाए। पहाड़ी ने मुस्कुरा कर कहा " मुझे पता था, तुम एक दिन समझोगे"।

यह नदी, पहाड़ी, अजगर सिर्फ प्रकृति का हिस्सा नहीं बल्कि हर उस विवेक का अभिन्न अंग है, जो सपने देखने की हिम्मत करता है। बचपन की मासूमियत, हमारे माता-पिता की तपस्या उनका त्याग कही न कही हर विवेक की बुद्धि भ्रमित कर देता है। इस सफलता पाने की दौड़ में हम मासूमियत तो खोते ही हैं, पर साथ में इस त्याग की भावना और परिकल्पना को भी खो बैठते हैं।

जब नदी ने पहाड़ी से कहा, तो पहाड़ी ने मुस्कुरा कर मना कर दिया था। हमें आगे प्रगति करनी है, लेकिन अपने मूल्यों, अपने जड़ों को काट कर नहीं। जब धरती पर विनाश का आगमन होगा तो वो मूल्यों के नाश के बाद ही संभव है। आज इक्कीसवीं सदी में भले ही लालटेन, मोमबत्तियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज होती जा रही हैं लेकिन ये सच है कि हर सुबह की एक शाम होती है। ऐसे में त्याग और मासूमियत की लौ ही पिघलकर इस अँधेरे का अन्त करेगी । बचपना ही इन्सान को सर्वनाश के पथ पर भ्रमित होने से रोकेगा।

विवेक का पहाड़ जहाँ उसे आत्मगौरव, इच्छाशक्ति और अडिग रहने की प्रेरणा देती थी, उसकी नदी उसे नई चीजों को जानने, सीखने, रूढ़िवादी परम्पराओं को त्याग करने की भावना थी। आखिर सितारों से आगे जहाँ और भी हैं।

सपनों का शहर कहे जाने वाली बम्बई कहते है इस शहर में हर किसी के लिए कुछ न कुछ होता है। कई लोग आते है एक बेहतर जिंदगी की तलाश में, कुछ किसी मजबूरी के कारण और कई अपने हुनर को एक पहचान दिलाने। पर इन्हीं सपनों और उम्मीदों के बीच बसती है कई कहानियाँ, संघर्षो की, नाउम्मीदी को, निराश और नाकामियों की। इसी बम्बई में है दुनिया का सबसे बड़ा स्लम 'धारावी'|

बारिश का मौसम था, अमावस्या की रात धारावी के किसी तीस गज से भी छोटी झुग्गी से चीखने की आवाजें आ रही थी, ये चीखें थी प्रसव की पीड़ा मे तड़प रही एक अधेड़ उम्र की विमला देवी की जिसने एक वर्ष पहले ही अपनी चौथी संतान को जन्म के तुरन्त बाद ही खो दिया था। पड़ोस में ही रह रही मालती ताई प्रसव में मदद कर रही थीं। इस इलाके में आधी रात को विमला को अस्पताल तक पहुँचाने की न तो व्यवस्था थी और न ही रघु के पास इतने पैसे कि वह किसी सस्ते अस्पताल में विमला को पहुँचा सके। रघु पास के ही एक कारखाने में जमा किया हुआ कूड़ा बेचकर कुछ पैसे कमाता था। आसपास कोई सरकारी अस्पताल न होने के कारण उस रात रघु की पाँचवी संतान की रोने की आवाज उस झुग्गी ने सुनी। जन्म के बाद तो अक्सर सब रोते हैं पर मुकुल शायद उस रात कुछ ज्यादा ही रोया, शायद वह रो रहा था अपने नसीब पर जिसने उसे इस जगह पहुँचाया।

विमला अपने बच्चे को सुरक्षित देख कर ममता से भरपूर, खुश थी। उसने नन्हें मुकुल को जो थोड़ा कमजोर मालूम पड़ रहा था, उसको अपने वक्ष से लगाया और रघु की ओर संतोष भरी नजरों से देखा। मुकुल बचपन में बाकी बच्चों के मुकाबले तनिक कमजोर मालूम पड़ता था पर उसके जोश में और बचपने में कोई कमी न मालूम पड़ती थी। मुकुल ने चार वर्ष की आ उम्र में समुदायिक शौचालय जिनकी सफाई कभी वक्त पर न होती कतार में कैसे अपनी पर अड़े रहना है सीख लिखा था। इतनी काम जगह पर खाना और सोना भी उसने भाई बहनों को देखकर सीखा।

छह वर्ष की उम्र में एक दिन उसने विमला से पूछा "माँ क्या पूरी दुनिया ऐसी ही होती है?" विमला बोली कैसी? इतनी छोटी, गंदी और बदबू वाली" मुकुल बोला। "नहीं रे दुनिया में तो बहुत कुछ है, गाड़ियाँ है, बड़ी बड़ी इमारतें है और तो और सिर्फ खेलने भर के लिए हमारे घर से कई बड़े पार्क हैं, तेरे दादा ने मुझे घुमाया था ये सब जब हम पहली बार इस शहर में आये थे"। "माँ भइया तो बोल रहा था कि समंदर जैसी भी एक चीज़ होती है जहाँ पानी साफ होता है। हाँ, होता तो है पर तू अब चुप-चाप खाना खा । मुकुल ये सुने बिना ही आगे बोलता चला गया, मानो वो बातों ही बातों में यह सब जी रहा हो। आठ साल का होने पर वह भी पिता और भाइयों का हाथ बटाने लगा दिन भर इकट्ठे करे हुए कचरे को अलग-अलग छाँटने में वह दादा की मदद करता। मुकुल का दादा एक अधेड़ उम्र का दुबला-पतला आदमी था जो अक्सर शांत रहता पर रात को वह कभी कभी नशे में आता पर पड़ोसियों की तरह वह कभी आई पर हाथ नहीं उठाता। दादा मुकुल से कहता कि एक दिन हम अपना खुद का धंधा खोलेंगे क्योंकि कारखाने का मालिक कचरे को कम दाम में खरीदता था, वह उस इलाके का इकलौता कचरा खरीदने वाला था और सब उससे डरते भी थे क्योंकि उसपर कई मुकदमे चलते थे। मुकुल की पढ़ाई आठ साल के बाद छूट गई, क्योंकि वहाँ का इकलौत स्कूल बंद हो गया था। उसकी बहनें भी घर के छोटे मोटे काम के अलावा कूड़ा बटोरने में दादा की मदद करतीं।

मुकुल आस पड़ोस के बच्चों के साथ कभी-कभी खेल लेता था पर जैसे जैसे उसकी उम्र बढ़ रही थी वह ज्यादातर शांत ही रहने लगा था। यह शांति उसके मन में चल रहे सवालो के कारण थी कि आखिर क्यों, उसे ऐसी जगह आकर रहना पड़ा जहाँ किसी आम आदमी के लिए रहना मानो लगभग नामुकिन सा हो। पर जब भी वह माँ से यह सवाल करता तो वह उसे ज्यादा कुछ न बताती। उसके बड़े भाई सुमित ने उसे बुलाकर सारी कहानी बतायी। मुकुल के दादा रघु को जुआ खेलने की आदत थी, और उसी जुओं में उसने अपने गाँव का घर और जमीन खो दी और इसीलिए वह पैसे इकट्ठे करने की उम्मीद से और रिश्तेदारों के कहने पर यहाँ आ गया और फँस कर रह गया।

इसके बाद से दादा शांत से रहते हैं। गाँव में भी हम बड़ी मुश्किल से ही गुज़ारा कर पा रहे थे पर यहाँ हम कुछ पैसे इकट्ठे कर पाते और दादा उन्हें भी जुओ में उड़ा देता। एक दिन जब आई ने परेशान होकर जान देने की कोशिश करी उसके बाद की दादा में कुछ सुधार आया है। अब शायद ही हम कभी वापस जा सके। कभी-कभी तो लगता है मुकुल कि ऐसी जिंदगी से तो मौत बेहतर है पर नहीं थोड़ी उम्मीद रहती है कि शायद कभी हम एक ठीक ठाक जिंदगी जी पाये।

यह सब बातें जानने के बाद मुकुल बोलता है, भइया हम जरूर कभी अच्छे से रहेंगे और इसके बाद दोनो भाई मिलकर कूड़ा बटोरने और उसे बोरियों मे भरने लगे। मुकुल आँखो मे एक बेहतर जिंदगी का सपना लिए, सपनों की नगरी की गरीबी और वास्तविकता से परिचित हो रहा था।